फिल्म रिव्यू: नानू की जानू
आपने कभी भूतिया कॉमेडी जैसे जॉनर का नाम सुना है. शायद. क्योंकि पहले भी इस टॉपिक पर फिल्में बन चुकी हैं. ‘हैल्लो ब्रदर’, ‘गैंग्स ऑफ घोस्ट’ और हालिया रिलीज़ ‘गोलमाल अगेन’. हालांकि ऐसी किस फिल्म ने पिछली बार हमें तरोताजा किया था, याद नहीं आता. ख़ैर, इस श्रेणी की फिल्मों में एक और नाम जुड़ गया अभय देओल अभिनीत ‘नानू की जानू’ का. जिसमें सिर्फ ‘नानू’ ही दिखे हैं. ‘जानू’ का एक्सटेंडेड कैमियो जैसा कुछ है. लेकिन बाकी फिल्मों के उलट ये मूवी आपको उम्मीद से कहीं ज़्यादा सर्व करती है. कहने का मतलब फिल्म जबर है.
ये कहानी एक लड़के से शुरू होती है. एकदम बैडऐस है. काम करता है – दो नंबर का. इस कैटेगरी में आने वाले चाहे जो काम करवा लो. नानू नाम है. ये रोल किया है अभय देओल ने जो 2016 में आई ‘हैप्पी भाग जाएगी’ के बाद अब दिखे हैं. तो ये लड़का सारे गलत काम करता है. इसकी मम्मी बिलकुल हमारी-आपकी मम्मी जैसी हैं. कहती हैं ‘उतने ही गलत काम करना, जितना हम अफोर्ड कर सकें.’ मतलब लड़के की लिमिट सेट कर दी. खैर, वो मम्मी हैं. लेकिन लड़के की ज़िंदगी में एक ऐक्सि़डेंट होता है और वो बदल जाता है. बहुत कायदे से बदलता है. ऐसा कुछ ट्रांजिशन नहीं है, जो आपको अजीब लगे. एकदम नॉर्मली. वो ऐक्सिडेंट एक लड़की के साथ होता है लेकिन बदल लड़का जाता है. अब वो इमोशनल होने लगता है. मतलब नानू वो चीज़ें करने लगता है, जिसके लिए उसकी लाइफ में जगह ही नहीं है. उसके इसी बदलाव की कहानी है ‘नानू की जानू.’
जब आप कोई फिल्म देखने जाते हैं, तो एक लेवल तक उसे जज करके जाते हैं, जो मुनाफे का सौदा नहीं होता. ख़ैर, यहां भी आप कुछ सोच कर जाते हैं और फिल्म देखने बैठते हैं कि कुर्सियों से जकड़ लिए जाते हैं. पहले पंद्रह मिनट में. फिर फिल्म खुलनी शुरू होती है और आप मजे लूटने लगते हैं. फिर एक पल ऐसा आता है, जब आप एकदम डरे हुए होने के बावजूद हंसते रहते हैं. यहां हॉरर-कॉमेडी वाला कॉन्सेप्ट अपनी बात साबित करता है. इसका क्रेडिट जाता है फिल्म के स्क्रीनप्ले और डायलॉ़ग लिखने वाले सेकंड लीड मनु ऋषि चड्ढा को, जो फिल्म में डब्बू बने हैं. उस आदमी ने जो काम किया है, बतौर डायलॉग राइटर और ऐक्टर, वो आप आसानी से नहीं भूल सकते. सबकुछ एकदम रियलिस्टिक और सही से चल रहा होता है, तभी क्लाइमैक्स आ जाता है.
और यही इस फिल्म की इकलौती झेलाऊ बात है. आपको विश्वास नहीं होता कि आप वही फिल्म देख रहे हैं.
अगर हम ऐक्टिंग की बात करें तो इसमें अभय देओल हैं. उन्हें देखकर ये महसूस नहीं होगा कि वो आदमी ऐक्टिंग कर रहा है. ऐसा लगेगा कि ये असल में भी ऐसा ही है. और ये किसी सीन विशेष नहीं, पूरी फिल्म के बारे में है. साथ में मनु ऋषि हैं, डायलॉग्स उनके ही लिखे हैं, तो उन्हें अपना काम ढंग से पता था. पत्रलेखा का किरदार मेन स्टोरी में बहुत ही छोटा है लेकिन जब तक वो स्क्रीन पर आती हैं, तब आप सोचते हैं ‘बड़ी देर कर दी मेहरबां आते-आते’.
म्यूज़िक में ‘तेरे ठुमके.. सपना चौधरी’ के अलावा कुछ नहीं है, जिसे आप सिनेमा हॉल के बाहर आने के बाद भी याद करें. न ही वो कहानी के साथ कदमताल मिलाता है. फिल्म में एक गाना साजिद-वाजिद का बनाया हुआ भी है. ‘जगराता सॉन्ग’ नाम है उसका. लेकिन उसमें ‘माशल्लाह’ वाला फील कतई नहीं है. ‘माशल्लाह’ वाला फील इसलिए क्योंकि ‘एक था टाइगर’ में सोहेल सेन के म्यूज़िक के बावजूद एक गाना साजिद-वाजिद का लिया गया था और वो फिल्म का सबसे सुपरहिट ट्रैक था.
फिल्म की लंबाई भी कमज़ोर बिंदु है. शुरुआत में ये बहुत सही रफ्तार से चल रही होती है लेकिन क्लाइमैक्स के बीस मिनट बाद तक खिंचती है. इस दौरान बस आप फिल्म खत्म होने का इंतज़ार कर रहे होते हैं. कारण? आपको बिना बताए पता चल जाता है कि आखिर होने क्या वाला है!
इसलिए एंजॉय करने का सबसे सही तरीका है कि आप इसके क्लाइमैक्स न काउंट करें और उससे पहले की जर्नी पर ध्यान दें जो धाकड़ है. ये एक ढंग की फिल्म है जो खुश करती है.
कई बार ऐसा होता है न कि आपको किसी ऐक्टर की कहानी के चुनाव पर भरोसा होता है. अभय देओल के साथ वो चीज़ बहुत जड़ तक जुड़ी हुई है. चाहे वो ‘रांझणा’ हो, ‘हैप्पी भाग जाएगी’ हो या अंडररेटेड ‘वन बाय टू’ हो. पत्रलेखा को ‘सिटीलाइट्स’ जैसी फिल्म में देखने के बाद यहां देखकर बुरा सा लगता है. लेकिन क्या करेंगे यही जीवन है. अगर आप वीकेंड पर खाली नहीं है, तो कर लीजिए. क्योंकि ‘अक्टूबर’ के बाद आपको थोड़ी हंसी-खुशी चाहिए ही चाहिए. वो आपको इस फिल्म से मिलेगी.
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